विट्ठल राम साहू ' निश्छल जी के छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - मास्टर के डाढ़ही

अंजोर
मास्टर ह अपन डाढ़ही ल मुड़ावत नई हे, तेखर संसो म लोगन दुबरावत हें। जौन ल देखबे तौंन हा ओंखर डाढ़हीच के गोठ करथें। अरे, गोठ करें के हजारों बिसय हे जइसे भरसटाचार, हतिया, जनाकारी, नेता मन के जनहित मं ईमानदारी देस भगति, जनता सेवा।
दिनो दिन मास्टर के डाढ़ही हा इतिहासिक महत्व के बनत जात हे। बड़े-बड़े मन ये रहसिय ल नई उछरा सकीन। कहूं-कहूं मन पुछयं त ओमन ला कांही-कांही ओखी बता के टरका देवय।‘ मास्टर ह डाढ़ही बड़हाय हे कहिके महूं नई जानवं। एक दिन का होईस, मैं साग-भाजी ले के बजार ले आवत राहांव, त मोला एक झन लाम-लाम डाढ़ही-मेंछा वाले ह राम-राम करत आगू म ठाढ़ होगे। मैं ओखर राम-राम के जुवाप ल तो दे देंव। फेर मने-मन मं गुने लगेंव, ये डढ़ियारा ह कोन ये कहिके। मैं ओला चिनहे के कोसिस करत पुछेंव-तैं कोन अस जी ? मैं तोला चिनहत नई हौंव। त कउवावत कहिथे-अरे, मोला नई चिन्हें जी ? हमन ऐके संग पढ़े-लिखे, खाये-खेले हन।
ओखर अतका केहे ले मैं अपन सुरता ल पचास बछर पाछू दौड़ायेंव। पहिली किलास ले एम.ए.तक के संगवारी मन के सुरता करेंव, फेर ऐको झन के सूरत-सकल हा नई मिलीस। हूं-हूं मोर सुरता नई आवत हे जी तैं कोन आस ते ? तोर नाव-गांव ल बताते त थोर बहुत सुरता आही तो आही।
त कहिथे-मैं गनेस मास्टर नो हंव जी। कइसे नई चिनहस। मैं हांसत ओखर हांत म अपन हांत ल जोरत केहेंव-अरें, तैं गनेस आस जी ? ओखर भक-भक ले कांदी-कचरा बरोबर बाढ़े मेंछा-डाढ़ही कोती हांत ल लमावत केहेंव-याहा का बिगन फबीत के मेंछा डाढ़ही ल बढ़ा लेये हस निपोर। जबतैं सफाचट रेहे तब के देखे रेहेंव। 
ये दुनियां वाला मन सही महूं ह ओखर डाढ़ही बढ़ोय के रहसिय ल जाने बर उदिम करेंव। पुछेंव त कहिथे-तहूं हा जी, दुनिया ले बाहिर महीच हा थोरहे डाढ़ही ल बढ़ोय हंव रे भई ? कतको रिसिमूनि, पंडित, बिदवान मन डाढ़ही राखथें, तइसने महूं हा सौख मं राखे हावंव। मैं केहेंव-तैं थोरहे पंडित, बिदवान अस तेमा जी ? येमा जरूर कांही गहूंरी बात होही, तभे तैं बढ़ोय हस गा। ओ हा पहिली तो अड़बड़ बहकईस, आखरीत मं ओला ये रहसिय के जरि ल उछरे ल परीस। अऊ अपन लाम-लाम डाढ़ही ल सारत कहिस- तैं ओ सोनी ल तो जानतेच हस। मैं पुछेंव, कोन सोनी निपोर ? सोनी तो गाड़ा-गाड़ा हें। ओ, जंगल दफ्तर वाला ? अरे नहीं जी, अरे, जौन सिंचाई विभाग म रिहीस मोट्ठा-मोट्ठा ठेमना गड़हन आजकाल रिटायर हो गे हे। बीच म मैं पुछंेव-अच्छा-अच्छा, ओ सोनीजी,.... का होगे ओला ? मैं केहेंव-मास्टर कहिथे काहीं नई होय हे ओला। ओला का होही जी ? मैं ओखर सों दू हजार रूपिया उधार उठा पारे हौंव बियाजहूं। 
मैं केहेंव-तैं उधार उठाये हस, ओ बात तो बनेच ये। उधार कोन नई लेवय ? आज काल तो उधार म हांथी घलो बेचावत हे। उधार म ये जिनगी हा चलत हे। इहां तक हमर देस घलो उधार म चलत हे। इहां जौन नंवा लईका अंवतरत हे तौंनों उधार ले के अंवतरत हें । येखर ले तोर डाढ़ही बढ़ोय के का संबंध हे ? 
मास्टर कहिथे-अरे, तैं तो जानथस-अभी-अभी मास्टर मन के तनखा हा बाढ़े हे। पहिली कमती मिलत रिहीस। उही पईत के उधार लेय रेहेंव। अऊ छुटन नई सकत रेहेंव। एक दिन बड़े फजर ले तगादा करे बर आ गे। मैं घर के भांडी ले कूद के जिओ मारे पल्ला दौंड़त एक ठन सेलून दुकान मं आ के खुसरेंव। अऊ हॅफरत-हॅफरत सैंफो-सैंफो करत सेलून वाला ल केहेंव-तैं झपकीन मोर डाढ़ही ल मुड़ तो ओ सोनी आ जही मोला मार डारही। मोर गोठ ल सुनके सेलून वाला ह दूसरा के डाढ़ही ल आधा छोड़ के मोर डाढ़ही म साबुन लगाये लगिस। ओतके बेखत सेलून दुकान के परदा ल उचा के सोनी ह गरजे लगिस-अरे, मासटर तैं इहां भाग के बइठे हस चल निकाल मोर पईसा ल, कै बछर होगे आज-काली करत ? मोर दू हजार ल दे। बियाज ल छोड़ देत हौं। 
मैं केहेंव-सोनीजी, ये तोर मांगे के तरिका बने नई हे। जौंन मेरन पाथस तौंन मेरन तगादा करथस। चल घर डाहार, मोला अभी डाढ़ही ल बनवावन दे। डाढ़ही के बनावत ले पइसा झन मांगबे। सोनी कहिथे-ठीक हे जभेतोर डाढ़ही मुड़ाही तभे पईसा लेहूं, कहिके अंड़िया के बइठगे। मैं सेलून वाले ल गवाही धरेंव अऊ केहेंव - सुन ले रे भाई, सोनीजी हा का काहात हे तेन ल ? अभी किहिसे न, कि जभे तोर डाढ़ही मुड़ही तभे पईसा मांगहूं। त सेलून वाला कहिथे-हां, मोरे आगू मं तो कहिस हे कि तोर डाढ़ही के मुड़ावत ले पईसा ला नई मागवं कहिके। मैं केहेंव-हां, त आगू अऊ का होईस ?
मास्टर कहिथे-का होही ? मैं तुरते डाढ़ही म लगे साबुन ल धो डारेंव अऊ अपन घर डाहार रेंग देंव। सोनी अऊ सेलून वाले हा देखते रहिगे। ओ दिन ले आज तक मैं डाढ़ही ल नई मुड़वायेंव। सोनी जबान हार गे। जब तक ले मैं डाढ़ही ल नई मुड़वाहूं तब तक ले ओ हा मोर मेंर पईसा नई मांगे सकय। बस, इही ये अतका डाढ़ही बाढ़े के कहिनी। कहिनी ल सुनके मोर मुंह ले निकलगे- मानगेंव तोला अऊ तोर डाढ़ही ल। 0

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